"कविता कैसे बनती है: सफेद कागज़ की कहानी"
कवि की नजर से: भावनाओं का सफर
किसान के पसीने से गीले गमछे की छाँव में लहराते धान की खेती से गेहूं, किसान के मुँह से विदाई गीत सुनती हुई मंडी में जाती है। अगल - अगल भाव में मंडी में बिकते हुए , चक्की में पीसने के बाद अपना स्वरुप बदलकर रोटी खाने की थाली तक आती है। जीवन की छोटी-मोती हर चीज़ो की अपनी ऐसी ही एक कहानी है।
चाहे हम आसमान में उड़ते हवाई जहाज की बात करे या उस हवाई जहाज को नीचे से निहारते बच्चे की बात करे या उस बच्चे को निहारते उसके बीमार दादा की बात करे या फिर दादा का इलाज करने वाले डॉक्टर की बात करे या उस डॉक्टर के अंदर अभी भी जिन्दा बचे उस कवि की बात करे जो मरीजों की नब्ज़ देखते हुए उनकी आँखों की करुणा को पढ़ता है और व्यथा को सुनकर कविता में पिरोता है।
यहां बात हुई कविता की। कविताएं - कहानियाँ अक्सर हम सब को अपनी ओर आकर्षित करती है और हम अकसर सोचते भी है कि क्या सोच कर लिखने वाले ने ऐसी कविता रची होगी ? कितनी तकलीफ में होगा लेखक जब उसने दूसरों की पीड़ा लिखी होगी। हर कविता के पीछे एक कहानी होती है और उस अनकही कहानी को बयां करती है वो सफेद कागज़ जिसने उन कविताओं को थामा है। पर कविता आती कहा से है? कवि के मन में ऐसा कौन सा chemical reaction होता है और अचानक से कविता फूट पड़ती है। आइए इस सवाल का जवाब ढूंढते है , नीचे लिखी कविता के माध्यम से ...
कविता कैसे बनती है
की दिल के सपनों का एक कांच टूटता है
वो कांच का टुकड़ा आत्मा को चुभता है
आत्मा से निकल लहू की एक बूँद जब धरा पे गिरती है
उस एक बूँद से जन्मी वेदना की बेटी तब कविता बनती है ,
और लाख टूटे सपनों का कब्रिस्तान है ये दिल
पर जब पेट में प्रेम की तितलियाँ उड़ती है
उस दफन सपनों की मिट्टी में
एक फूल प्रेम के खिलते है
और तब फूल की खुशबू , कविता बन महकती है ,
ज़िंदगी जद्दोज़हत के बीच
देश, दुनिया, समाज, परिवार के झगड़ो के बीच
जब कल्पनाओं में मुझे मेरा साथी अकेलापन मिलता है
तब कल्पना की रसोई में रोटियाँ नहीं कविताएं बनती है ,
जब पेड़ की छायां , नदी की धारा पे पड़ती है
नदियां सूरज की किरणों की गोटे वाली साड़ी पहनती है
तब एक बड़े से घर की छोटी सी खिड़की से
गर्मागर्म कविता की भाप हवाओं में घुलती है,
एक विचार बड़े देर तक ठहरे मानस में
जैसे हरे पत्तों पर ओस की बूंद
और तुम ठहर जाओ पूरा दिन बीत जाने पर
उस एक विचार में ,
फिर बधाई हो ! चाँद के सबसे गहरे गड्ढे की सतह पर
तुम्हारी कविता ने जन्म लिया है
जाओ, कलम की स्याही से पकड़ उसे कागज़ पर उतरो।
- लोकांक्षा
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