नज़्म : खुदा का खेल
खुदा की अद्वितीय चेस्टा: मानवता की दृष्टिकोण से
इस कविता में मानवता और ईश्वर के बीच संवाद की गहनता को उजागर किया गया है। खुदा और इंसान, दोनों के दृष्टिकोण से जीवन और उसकी चुनौतियों को चरितार्थ किया गया है।
इस हसीन दुनिया को बनाकर वह खुदा इतराया
और उसकी जालिम दुनिया में मैंने उसे जी कर दिखाया
सुना है वह इंसानी पैदाइश को तरसता है
अरे, ओ खुदा! तू क्यों अपने पंकज से उतर कीचड़ में आने को मचलता है
यहां की आबो-हवा तेरे तासीर की नहीं है
मुर्दा तो मुर्दा, यहां इंसा में धड़क- ए-दिल नहीं है
फूलों को पौधों से अलग कर खा जाते हैं
कांटो को चुनकर राहों में बिछा जाते हैं
और तू कैसा खुदा है स्याही में कंजूसी करता है
नसीबे सबकी लिखता है, जिसकी ना लिखें उसे संघर्ष से नवाज़ता है
सच कहुँ, तू सच्चा खुदा है
किसी को तूने खेल के जाल फँसाया
जिसे रुलाया उसे अपने दर तक बुलाया
दौलत पे नाहते को तूने दौलतमंद बनाया
अंधेरे में चमकते जुगनू को तूने ध्यानचंद बनाया
तूने सबसे अच्छी खुद्दारी बनाई
किसीने खुद्दारी में रोटी को लात मारी
तो किसी ने पेट की आग आंखों के पानी से बुझाई
और अपने ही खेल में तू कौन सा किरदार निभाएगा
खुदा बन इतना बदनाम हुआ इंसान बन कौन सी इज्जत कमायेगा।।
इस कविता को पूरा पढ़ने के लिए आप का धन्यवाद। अगर आप इसी तरह की और कविता पढ़ना चाहते है तो मुझे instagram में follow करें - @lokanksha_sharma
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