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 साहित्य में अहम: एक कवि का आत्म-मन्थन

अहम का वहम 

  अहम का वहम, एक ऐसा आलेख है जो हमें अपनी सोच और अपने आप में छुपे अहंकार की गहराई में ले जाता है। इस कविता में, हर पंक्ति उस अहंकार को छूने की कोशिश करती है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, लेकिन जो हमारे व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारतीय साहित्य, इतिहास और भूगोल के माध्यम से एक अद्वितीय यात्रा पर ले जाने वाली इस कविता में दिखाया है कि कैसे एक समाज में व्यक्ति अपने अहम के वहम में फंस सकता है। आइए उस अहम को समझने की कोशिश करें और इस कविता के माध्यम से उसकी वास्तविकता को जानें।



अहंकार पर कविता - एक कवि का आत्म-मन्थन , Hindi Poem On Ego





मैंने सूरज को धरती का ताज लिखा और 
चांद को धरा का नगीना कहा...... 

मैंने उर्वशी के सौंदर्य का वर्णन लिखा 

प्रेम में पड़े  व्यक्ति का हर्ष और विषाद लिखा

मैंने राम के दुख में रोती सीता का वियोग लिखा।।

इंद्रलोक  की अप्सरा के पुत्र [हनुमान ] की महिमा लिखी 

श्मशान में बैठा शिव लिखा और

मसान में मानस लिखी ,उस मानस में उर्मिला लिखी
उसके बरसों का इंतजार लिखा

14 वर्षों से जलती  दीपक की ज्योति को 
उसके प्रेम का विश्वास लिखा .... 

बादल के इंतजार में तड़पी
 धरती की व्याकुलता लिखी 

मैंने पूरब और पश्चिम के प्रेम की गाथा लिखी

उसके विरह में जो बरसे बादल उससे 
मैंने धरा की तृप्ति लिखी .... 

कुरुवंश की मर्यादा [द्रौपती ]को बचाता हुआ कृष्ण लीला ,

अपनी ही नारी को बेचकर सर झुकाता पांडव लिखा , 

अधर्म को भी देखकर निशब्द खड़े पितामह का मौन लिखा 
सौ पुत्रों की निसंतान माता की वेदना लिखी।।

महाराणा की नंगी तलवार से थर्राता अकबर लिखा 

6 साल तक खिलजी को कैद कर
 महाराजा सांबा का गौरव लिखा  .... 

मैंने औरत के कंगन में भी तलवार की झंकार लिखी 

व्यक्ति के स्वाभिमान से  शतरंज खेलता अंग्रेज दिखा 
आजादी के लिए अपने ही खून का सौदा करने वाले 
भारतीयों का इतिहास लिखा 

इतिहास लिखा , भूगोल लिखा 
जब जब राजनीति फिसली उसे कंधा देता साहित्य लिखा ..... 

मैंने भारत को इस युग का गुरु लिखा 
और नई पीढ़ी को इस गुरु का शिष्य लिखा।।






आप सब को जान कर आश्चर्य होगा लेकिन ऊपर लिखी कविता सिर्फ एक वहम मात्र है। 

वहम इसलिए क्यूंकि इसमें अहम की प्रधानता है।  एक कवि के अहम की जिसे अज्ञानता वश ऐसा लगने लगा था की ये इतिहास, भूगोल ,महाकाव्य रचकर उसने उपकार किया है समाज में ... लेकिन समाज को ज्ञान की राह दिखाने वाले कवि के आँखो से अज्ञानता का चश्मा उतरा फिर वो लिखते है  की .... 

 माना कि मैंने साहित्य लिखा

आज और कल में बहुत बड़ा अंतर लिखा

पर रस और अलंकार के साथ मैंने तो बस खेला है

इसे  रचाने और गढ़ने वाली तो मां शारदा है ...... 

मैंने रचा क्योंकि उसने ही तो शब्द दिया 
इस पृथ्वी में स्वर दिया  

मैंने तो रामकथा रची पर उसने तो राम को जना है।


           उम्मीद है की जिस तरह कवि ने अपने अहम के वहम को त्याग कर सुधार किया उसी तरह हम और आप भी करें।  अपने आप पर ,अपने काम पर गर्व तो हो पर घमंड ना हो।
 



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