समझदारी का हाथ
कि जो हुई बारिश तो धरती के गर्भ से एक अंकुर फूटा
उसी क्षण उसी बारिश में किसी परिंदे का घोंसला टूटा
समझदारी ने इस कदर थामा है ये हाथ
कि उसी बारिश में कोई पकौड़े तल रहा था
लेकिन मेरा ये दिल उस घोंसले के लिए रो रहा था
की मौज मस्ती के नाम पर हास्य कविता पढ़ लेते हैं
और जब हमारी उम्र की दुनिया मौज करती है ना साहब
तो हम राम नाम को जप कर आनंद कर लेते हैं.....
समझदारी की हमारी सीमा तो देखो,
सरहदें अपनी ये लाँघती नहीं है,
हो किसी दिन खुले आसमान में तड़के की बारिश
तो पैर के घूंघरूं भी बिन छाता खोले नाचते नहीं है ।।
और जब यह संसार जन्माष्टमी मना रहा था
तब मैं पांडवों, कौरवों, और कई ज्ञानी पुरुषों को सभा{ चिरहरण प्रसंग } में मौन देख रहा था
कोई कृष्ण, कोई देवकी तो कोई वसुदेव बन रहा था
और जब उसने मुझे राधा बनने को कहा , तब उसे मना कर
मैं सभा में विकर्ण बन अधर्म के विरुद्ध बोल रहा था।
ना राधा, ना मीरा, ना कृष्ण बना मैं
ना शिव की जटा की धारा बन सका
ये धारा ये गंगा जिसके नाखूनों से निकली
उसे ही ये धारा पार कराने वाला केवट बना रहा।।
समझदारी की आग में यूँ झुलस चुके हैं
कि नशे को भी अब गलत नहीं कहते
कोई पूरब में सिगरेट का धुआं तो छोड़े
पश्चिम में बैठकर हम उसके हृदय की व्यथा लिखते हैं ,
और जब 75वीं बार भारत 15 अगस्त मना रहा था
हर घर तिरंगा कहकर, अमृत महोत्सव मना रहा था
उस दिन भी समझदारी वाला दिमाग धरती से
5 फीट की ऊंचाई से 500 फीट ऊंचे तिरंगे को सलामी दे रहा था ,
हां! हर घर तिरंगा लगाने की मुहिम तो चालू थी लेकिन ,
जो तिरंगा किसी की साँसों का दाम चूका कर आया हो
उस तिरंगे को कैसे अपने घर में फहराता ,
कृष्ण तो हर घर पूजे जाते है
लेकिन राम और उनकी जिस मर्यादा ने देश को 75वी आज़ादी दिखायी
उस आज़ादी की निशानी को कैसे इस अनुभवहीन बुद्धि से
अपने घर की शिखर पर लगाता।।
इस कविता को पूरा पढ़ने के लिए आप का धन्यवाद। अगर आप इसी तरह की और कविता पढ़ना चाहते है तो मुझे instagram में follow करें - @lokanksha_sharma
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