अब्दुल-मिर्जा चर्चा: जीवन की गहराइयों में एक संवाद
जीवन और इसके अदृश्य पहलु: अब्दुल का दृष्टिकोण
भारतीय साहित्य के गहरे कोने में अब्दुल और मिर्जा के बीच एक अमर संवाद है, जो जीवन की उन्नतियों और पतनों का चित्रण करता है। 'जीवन की कहानी' के इस नवीनतम कविता 'अब्दुल-मिर्जा चर्चा' में गहरी डुबकियाँ लीजिए, जो अस्तित्व, गरीबी, सपने और संबंधों की सूक्ष्मताओं को उधघाटित करता है। उन सभी के लिए आदर्श जो सजीव हिंदी छंदों की मूल्यवानता करते हैं और शब्दों में पकड़ी गई दिल से भावुकता की तलाश में हैं। हमारे साथ इस कविता की यात्रा में शामिल हों, जो 'जिंदगी की सच्चाई' की गूँज करता है और हर 'दिल की बात' के साथ गूंजता है।
अब्दुल ! तुझे 21 की उम्र वो याद है.....
मिर्ज़ा - जमी भी उसकी, आसमान भी उसका,
बारिश भी उसकी, रेगिस्तान भी उसका,
नसीब में लिखी शौहरत भी उसकी,
फकीरी लिखी तो कलम भी उसकी
फकीरी में लिखी गरीबी भी उसकी
तू गरीब, वो तेरा गरीब नवाज़ हो गया ,
बता फिर ऐसा क्या हादसा हो गया ?
अब्दुल - बारिश में मेरी छत टपकती है , जिसे देख बेगम रोज़ झगड़ती है,
मेरी गरीबी का ज़िन्दगी रोज़ मज़ाक उड़ाती है ,
ज़िन्दगी भर सोता रहा बेफिक्री की छावों में
पर गूलाब-ए -चमन { औलाद } की फ़िक्र अब सपने में भी जगाती है,
घुटने मेरे अब चलते नहीं और बेटा काम करता नहीं
बेटी है दो, उम्र जिनकी ढलती जाती है
बीवी के ताने अब कानो में गूँजने लगे है
मेरे सर के ऊपर अब कौएं नाचने लगे है ....
मिर्ज़ा - अब्दुल ! तुझे 21 की उम्र वो याद है , माशूका के लब पर घुलते मिश्री से बोल याद है,
"हो कोई आफ़त या कुदरत का कहर बरसे
मैं रहूंगी साथ तुम्हारे, जब तक दिल धड़के "
बेगम हो चुकी माशूका को उसके बोल याद दिलाओ।
और जब छत टपके तुम्हारी, उसे तुम दोनों की पहली बारिश याद दिलाओ .......
बेटियों को काबिल बनाओ
उन्हें तितलियाँ नहीं , मधुमक्खी बनाओ
शहद बनाना सिखाओ , शहद बेचना भी सिखाओ
गलत हाथों को डंक मारना भी सिखाओ,
कलम पकड़ना सिखाओ और
कलम से सिर्फ लिखा ही नहीं जाता
गलत आँखों को नोचा भी जाता है
ये बताओ ......
बेटा लिखता है तुम्हारा , उसे गालिब बनाओ
तुमने रातें बेची अपनी
उसके सपनों के लिए ,
अब एक बार उसके सपनों पर विश्वास दिखाओ ,
जिंदगी जब रुलाये , तो आँखों के आंसू में
होठों की मुस्कुराहट मिलाओ ,
खारे पानी में मिश्री-सी हँसी मिलाओ।।
- लोकांक्षा
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